जो आज तक तुम देखते रहे, काफ़िर की नज़र से,
चलो आज दिखाता हूँ फिर वही, मुझ मुसाफ़िर की नज़र से ।
काफ़ूर हुई समझ का आलम ये,
कि जो मिला उसमें शान्ति पा न सका,
मेज़ों के नीचे से मिला तुझे इतना,
कि दिमाग़ में भी वैचारिक क्रान्ति ला न सका ।
इतना न गिर ऐ निर्लज्ज! अब भी वक़्त है, संभल जा ।
तुझे देख और बहुत हैं जो वही करेंगे, बदल जा ।
कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन वो रिश्वत तेरी ज़िन्दगी के आड़े आ जाए,
और उस दिन कंगाल सा तू, बिन रिश्वत अपनी ज़िन्दगी भी न बचा पाए ।

जो आज तक तुम देखते रहे, काफ़िर की नज़र से,
चलो आज दिखाता हूँ फिर वही, मुझ मुसाफ़िर की नज़र से ।
घर महल से बाहर निकली वो रखकर अपने काम से काम,
माँ ने घर पे सिखाया था कि पगली, ज़माने में है बहुत हराम ।
पहनावे की हिदायतें देंगी तुझको उँगलियाँ तमाम,
पर खुद को कभी न समझाएंगी वो नज़रें बेनाम ।
हर घर में मिलती इस सीख से लगा था मुझे,
कि पत्नी-माँ-बेटी के प्रति तुममें थोड़ी तो हया होगी ।
पर नहीं, साहब नहीं! किस हया की सुनूँ?
जिस गति से हम चल रहे हैं, वह दिन नहीं दूर,
मोहल्ला-शहर हैं बड़ी बातें, गली-गली एक निर्भया होगी ।

जो आज तक तुम देखते रहे, काफ़िर की नज़र से,
चलो आज दिखाता हूँ फिर वही, मुझ मुसाफ़िर की नज़र से ।
पढ़ा था इतिहासों में, समझा था नैतिक विचारों में,
गुरु-शिष्य का रिश्ता अलौकिक है,
पर घोर कलयुग, अब ये शिक्षा भी सिर्फ मौखिक है ।
वो ज़माना गया बरखुरदार, जब तुम्हारी सफलता पर,
तुमसे ज़्यादा खुश होता था तुम्हारा गुरु।
क्योंकि इस ज़माने में बीच गुरु-शिष्य के,
अहंकार से सब होता है शुरू ।
संभल जा ऐ इंसान, कहीं विश्वास शिक्षकों से बच्चों का उठ न जाए।
संभल जा ऐ इंसान, नियम से उलट कहीं मानव फिर आदि मानव न बन जाए ।⁠⁠⁠⁠

-रहनुमा

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